शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
आगामी 9 मई को द्वितीय विश्वयुद्ध को ख़त्म हुए 65 वर्ष हो जाएंगे
रूस में दूसरे विश्वयुद्ध को 'महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध' कहकर पुकारा जाता है। विजय-दिवस के अवसर पर रूस में विजय के प्रतीक के रूप में युवा क्लब और छात्र-संगठन 'गिओर्गी रिबन' को जनता के बीच बाँटते हैं और 9 मई का दिन आने से दस-पन्द्रह दिन पहले से ही लोग पिन से यह रिबन अपनी छाती पर टाँक कर घूमने लगते है। नारंगी और काले रंग की रिबन की इस पट्टी को अपनी छाती पर लगाने का मतलब है-- "हम भी फ़ासिज़्म के विरोधी हैं और फ़ासीवाद या नाज़ियों से लड़ने वाले वीर सैनिकों को नमन करते हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध में शहीद हो गए करोड़ों लोगों को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।
नारंगी और काले रंग की पट्टियों वाला यह रिबन 'गिओर्गी रिबन' इसलिए कहलाता है क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वीर सैनिकों को जो 'गिओर्गी पदक' दिया जाता था, वह इसी तरह के रिबन में लटका होता था। रूस में 'गिओर्गी' विजय के देवता का नाम है-- वह देवता जो युद्ध में जीत दिलाता है। भारत के 'परमवीर चक्र' की तरह यह 'गिओर्गी पदक' भी द्वितीय विश्वयुद्ध में असीम शौर्य का प्रदर्शन करने वाले वीर सैनिकों को उनकी बहादुरी के लिए दिया जाता था।
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
शायद 1977 में इसे लिखा था मैंने। कविता का शीर्षक है-- ’तुम्हारा रक्तकमल’
-----------------------------------------
तुम्हारा रक्तकमल
============
देखो !
तुम सभी देखो
उस औरत को देखो
मुझे
मालूम है सब-कुछ
उस औरत के विषय में
जिसे उन्होंने रक्तकमल पर खड़ा किया है
तुम्हारा रक्तकमल
उस
औरत के
हाथों से टपकते
चंद चांदी के सिक्के ज़मीन पर
ख़ुश मत हो !
तुम्हारे रक्त से निर्मित
वे सिक्के तुम्हारे नहीं हैं
उनके हैं
जिनके पास रक्तकमल है
तुम्हारा रक्तकमल
वे फेंकते हैं सिक्के तुम्हें
सेकते हैं भट्ठी पर
भूनते हैं माँस-- बोटी टूंगते हैं
शेष बचे रक्त से रक्तकमल उगाते हैं
औरत लाते हैं और
फिर सिक्के गिराते हैं
समझो तुम
फँस मत जाना, सावधान रहना
सिक्के मत उठाना
नहीं तो वे फिर
तुम्हारा रक्त मांगेंगे
नया रक्तकमल उगाने के लिए।
अब
एक काम करो तुम
चाकू बन जाओ
तेज़ी से जाओ-- वार करो
जड़ सहित रक्तकमल काट लाओ
तुम्हारा रक्तकमल।
शनिवार, 20 मार्च 2010
अपने इस ब्लॉग का आरम्भ मैं अपनी माँ की स्मृति से कर रहा हूँ जिन्हें मैंने पिछले 40 वर्षों से नहीं देखा, लेकिन जिन्हें मैं रोज़ अपने मन में झाँक कर देखता हूँ। मेरी माँ ने मुझे यह सिखाया था कि कभी चोरी नहीं करना और कभी किसी का शोषण भी नहीं करना। मेरी माँ ने मुझसे कहा था -- कभी अपने निजी लाभ के लिए किसी दूसरे का नुकसान नहीं करना। मेरी माँ ने 1969 में मरने से पहले जो भी मुझसे कहा था, आज तक मैं उसका अक्षरश: पालन करता आया हूँ। यह कविता 1980 में मैंने अपनी माँ विजय जैन के लिए लिखी थी।
माँ
तुम कभी नहीं हारीं
कहीं नहीं हारीं
जीतती रहीं
अंत तक निरन्तर
कच-कच कर
टूटकर बिखरते हुए
बार-बार
गिरकर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर
तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफ़ेद आग बन
लहकती रही
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मी दिनों के सामने
चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं
फिर एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनंत को चली गईं
खो गईं