रविवार, 28 अक्तूबर 2012

प्रेम, बतरस और कविताई 


त्रिलोचन जी नहीं रहे। यह ख़बर इंटरनेट से ही मिली। मैं बेहद उद्विग्न और बेचैन हो गया। मुझे वे पुराने दिन याद आ रहे थे, जब मैं करीब-करीब रोज़ ही उनके पास जाकर बैठता था। बतरस का जो मज़ा त्रिलोचन जी के साथ आता था, वह बात मैंने किसी और कवि के साथ कभी महसूस नहीं की। त्रिलोचन जी से बड़ा गप्पबाज़ भी नहीं देखा। गप्प को सच बना कर कहना और इतने यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत करना कि उसे लोग सच मान लें, त्रिलोचन को ही आता था। नामवर जी त्रिलोचन के गहरे मित्र थे। वे उनकी युवावस्था के मित्र थे, इसलिए उनकी ज़्यादातर गप्पों के नायक भी वे ही होते थे। शुरू-शुरू में जब उनसे मुलाकात हुई थी तो मैं उनकी बातों को सच मानता था लेकिन बाद में पता लगा कि ये सब उनकी कपोल-कल्पनाएँ थीं। बाद में मैं भी उन्हें ऐसी ही कहानियाँ और किस्से बना-बना कर सुनाने लगा। हिन्दी के चर्चित कवियों, लेखकों और आलोचकों को लेकर वे किस्से होते थे। जिनमें दस से पन्द्रह प्रतिशत यथार्थ का अंश रहता था, बाक़ी कल्पना की उड़ान। बस, इसी बात पर मेरी उनकी दोस्ती बढ़ने लगी और हम दोस्त हो गए। वे मुझ से पूरे चालीस साल बड़े थे। लेकिन उनका व्यवहार मुझ से हमेशा ऎसा रहा, मानो मैं ही उनसे बड़ा हूँ। उन दिनों आदरणीय अशोक वाजपेयी मध्यप्रदेश सरकार में संस्कृति सचिव थे और यह समझिए कि भारत भर के कवियों, चित्रकारों, नाटककारों, नर्तकों, संगीतकारों--- सभी की मौज हो गई थी। जिन्हें भारत के सरकारी हल्कों में कोई टके को नहीं पूछता था, हिन्दी के उन लेखकों को, प्रतिष्ठित लेखकों को और कलाकारों को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मान-सम्मान दिया जाने लगा। भोपाल में कलाओं के केन्द्र के रूप में अशोक वाजपेयी भारत-भवन का निर्माण करा रहे थे। तभी वाजपेयी जी ने एक आंदोलन-सा चलाया---"कविता की वापसी"। मध्यप्रदेश का पूरा सरकारी संस्कृति विभाग कविता को वापिस लाने में जुट गया। वाजपेयी जी ने मध्यप्रदेश के हिन्दी के कवियों और हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों के कविता- संग्रहों की सौ-सौ प्रतियाँ खरीदने की घोषणा कर दी। बस, फिर क्या था। प्रकाशकों की बन आई। प्रकाशकों ने मध्यप्रदेश के कवियों को ढूंढना शुरू किया और हर छोटे-बड़े कवि का कविता-संग्रह छप कर बाज़ार मे आ गया। लेकिन 'कविता की वापसी' का फ़ायदा यह हुआ कि हिन्दी के उन बड़े-बड़े कवियों के संग्रह भी छपे, जो मध्यप्रदेश सरकार द्वारा की जाने वाली उस खरीद में आ सकते थे। संभावना प्रकाशन, हापुड़ ने भी बहुत से कवियों को छापने की योजना बनाई। उन्हीं में बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी के कविता-संग्रह भी थे। मैं उन दिनों हिन्दी में एम.ए कर रहा था और बेरोज़गार था। संभावना प्रकाशन के मालिक और हिन्दी के बेहद अच्छे और प्रसिद्ध कहानीकार भाई अशोक अग्रवाल ने मेरी मदद करने के लिए पाँच कविता-संग्रहों के प्रोडक्शन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी। उनमें त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह 'ताप के ताये हुए दिन' और बाबा नागार्जुन का कविता-संग्रह 'खिचड़ी-विप्लव देखा हमने' भी शामिल थे। त्रिलोचन जी का कविता संग्रह करीब तेईस साल बाद आ रहा था। इससे पहले 1957 में उनका 'दिगंत' छपा था। 1957 मेरा जन्म-वर्ष भी है। संयोग कुछ ऎसा हुआ कि जिस दिन त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह छप कर आया उस दिन मेरा जन्मदिन था। तो मैं बाइन्डर के यहाँ से "ताप के ताये हुए दिन' की पहली प्रति लेकर त्रिलोचन जी के पास पहुँचा। क़िताब अभी गीली थी और उसकी बाइन्डिंग पूरी तरह से सूखी नहीं थी। त्रिलोचन जी पुस्तक देखकर प्रसन्न हुए। उनके मुख पर मुस्कराहट छा गई। बड़ी देर तक वे अपने उस संग्रह को उलटते-पलटते रहे। फिर बोले-- पूरे तेईस साल बाद आई है क़िताब। मैंने कहा-- जी हाँ, मैं भी तेईस साल का हूँ। आज ही मेरा जन्मदिन है। मेरे जन्मदिवस पर आपको मिला है यह उपहार। लेकिन आपका जन्मदिन भी तो आने वाला है जल्दी ही। यह समझिए कि आपके जन्मदिवस पर आपको यह उपहार मिला है। त्रिलोचन जी हँसे अपनी मोहक, लुभावनी हँसी। फिर बोले---चलिए, इस ख़ुशी में आपको पान खिलाते हैं। एक पंथ दो काज हो जाएँगे। आपका जन्मदिन भी मना लेंगे और इस क़िताब के आगमन की ख़ुशी भी मना लेंगे। हम लोग पान वाले के ठीये पर पहुँचे। पान खाया। उन्होंने कुछ देर पान वाले से गप्प लड़ाई। उसके भाई का, बच्चों का और घरैतन का हाल-चाल पूछा। उसके बाद हम लोगों ने वहीं पास के दूसरे ठीये पर जाकर चाय पी। चाय पीने के बाद हम दोनों उनके दफ़्तर में वापिस लौट आए। शाम को मुझे किताबों का बंडल लेकर हापुड़ जाना था। मैं ज़रा जल्दी में था। मैंने त्रिलोचन जी से विदा माँगी। त्रिलोचन जी ने कहा-- एक मिनट रुकिए। उसके बाद उन्होंने 'ताप के ताये हुए दिन' की वह पहली प्रति उठाई और उस पर लिखा-- 'अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।' त्रिलोचन जी का वह कविता-संग्रह इस समय भी जब मैं उन्हें स्मरण कर रहा हूँ, मेरे सामने रखा हुआ है। उस संग्रह पर सबसे अंतिम पृष्ठ पर मेरी लिखावट में छह पंक्तियाँ लिखी हुई हैं। उन्हीं दिनों कभी लिखी थीं मैंने। वे काव्य-पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : हिन्दी के संपादक से मेरी बस यही लड़ाई वो कहता है मुझ से, तुम कवि नहीं हो भाई तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है नागार्जुन तो है, पर त्रिलोचन नहीं है।

सोमवार, 26 सितंबर 2011

मेरी कुछ कविताएँ

1. अनमने दिन

दिन बीते
रीते-रीते
इन सूनी राहों पे

मिला न कोई राही
बना न कोई साथी
वन सूखे चाहों के

याद न कोई आता
न मन को कोई भाता
घेरे खाली हैं बाहों के

कलप रहा है तन
जैसे भू-अगन
दिन आए फिर कराहों के


(रचनाकाल : 2005)

2. अभ्रकी धूप

यह धूप बताशे के रंग की
यह दमक आतशी दर्पण की
कई दिनों में आज खिल आई है
यह आभा दिनकर के तन की

फिर चमक उठा गगन सारा
फिर गमक उठा है वन सारा
फिर पक्षी-कलरव गूँज उठा
कुसुमित हो उठा जीवन सारा

यह धूप कपूरी, क्या कहना
यह रंग कसूरी, क्या कहना
अक्षत-सा छींट रही मन में
उल्लास-माधुरी क्या कहना

फिर संदली धूल उड़े हलकी
फिर जल में कंचन की झलकी
फिर अपनी बाँकी चितवन से
मुझे लुभाए यह लड़की


(रचनाकाल : 2005)

3. पहले की तरह

पहुँच अचानक उस ने मेरे घर पर
लाड़ भरे स्वर में कहा ठहर कर
"अरे... सब-कुछ पहले जैसा है
सब वैसा का वैसा है...
पहले की तरह..."

फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरा
लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा

उदास नज़र से मैं ने उसे ताका
फिर उस की आँखों में झाँका

मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सी
हँसी ज़ोर से किसी बहकी गुड़िया-सी

चूमा उस ने मुझे, फिर सिर को दिया खम
बरसों के बाद इस तरह मिले हम
पहले की तरह

(2006 में रचित)


4. प्रतीक्षा

अभी महीना गुज़रा है आधा
शेष और हैं पंद्रह दिन
समय यह सरके कच्छप-गति से
नंदिनी तेरे बिन

जीवन खाली है, मन खाली
स्मृति की जकड़न
नीली पड़ गई देह विरह से
घेर रही ठिठुरन

मर जाएगा कवि यह तेरा
बिखर जाएगा फूल
अरी, नंदिनी, जब आएगी तू
बस, शेष बचेगी धूल

(रचनाकाल : 2004)

5. बदलाव

जब तक मैं कहता रहा
जीवन की कथा उदास
उबासियाँ आप लेते रहे
बैठे रहे मेरे पास

पर ज्यों ही शुरू किया मैं ने
सत्ता का झूठा यश-गान
सिर-माथे पर मुझे बैठाकर
किया आप ने मेरा मान

(2004 में रचित)

6. बेटियों का गीत

मैं मौन रहूँ
तुम गाओ

जैसे फूले अमलतास
तुम वैसे ही
खिल जाओ


जीवन के
अरुण दिवस सुनहरे
नहीं आज
तुम पर कोई पहरे

जैसे दहके अमलतास
तुम वैसे
जगमगाओ


कुहके जग-भर में
तू कल्याणी
मकरंद बने
तेरी युववाणी

जैसे मधुपूरित अमलतास
तुम सुरभि
बन छाओ



(रचनाकाल : 2007)


7. वसन्त की रात-1

खिड़की के पास खड़ी होकर
वो चांद पकड़ना चाहे
फैली थी वितान में ऊपर
उसकी दो पतली बाहें

चमक रहा था उसका चेहरा
थी वसन्त की रात
चेहरे पर बरस रहा था उसके
चन्द्रकिरणों का प्रपात


8. वसन्त की रात-2

चित्रा जौहरी के लिए

दिन वसन्त के आए फिर से आई वसन्त की रात
इतने बरस बाद भी, चित्रा! तू है मेरे साथ
पढ़ते थे तब साथ-साथ हम, लड़ते थे बिन बात
घूमा करते वन-प्रांतर में डाल हाथ में हाथ

बदली तैर रही है नभ में झलक रहा है चांद
चित्रा! तेरी याद में मन है मेरा उदास
देखूंगा, देखूंगा, मैं तुझे फिर एक बार
मरते हुए कवि को, चित्रा! अब भी है यह आस


9. वह दिन

उचकी वह पंजों पर थोड़ा-सा
फिर मेरी ओर होंठ बढ़ाए
चूमा उसे मैं ने यों, ज्यों मारा कोड़ा-सा
यह अहम हमारा हमें लड़ाए

फिर झरने लगे आँसू वहाँ निरंतर
धुल गए बोझल से वे पल-छिन
सावन की बारिश में निःस्वर
डूब गया वह उदास दिन

(2006 में रचित)



10. वह लड़की


दिन था गर्मी का, बदली छाई थी
थी उमस फ़ज़ा में भरी हुई
लड़की वह छोटी मुझे बेहद भाई थी
थी बस-स्टॉप पर खड़ी हुई

मैं नहीं जानता क्या नाम है उसका
करती है वह क्या काम
याद मुझे बस, संदल का भभका
और उस के चेहरे की मुस्कान

(2005 में रचित)


11. विरह-गान

कवि उदय प्रकाश के लिए

दुख भरी तेरी कथा
तेरे जीवन की व्यथा
सुनने को तैयार हूँ
मैं भी बेकरार हूँ

बरसों से तुझ से मिला नहीं
सूखा ठूँठ खड़ा हूँ मैं
एक पत्ता भी खिला नहीं

तू मेरा जीवन-जल था
रीढ़ मेरी, मेरा संबल था
अब तुझ से दूर पड़ा हूँ मैं


(2004 में रचित)


12. संदेसा

(सुधीर सक्सेना के लिए)

कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
कहाँ है तू, कहाँ खो गया अचानक
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल

क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
लगे, दूर है बहुत मास्को से भोपाल

बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण


(रचनाकाल : 2006)


13. हिन्दी कविता का क्यों

अच्छे कवियों को सब हिदी वाले नकारते
और बुरे कवियों के सौ-सौ गुण बघारते
ऐसा क्यों है, ये बताएँ ज़रा, भाई अनिल जी
अच्छे कवि क्यों नहीं कहलाते हैं सलिल जी

क्यों ले-दे कर छपने वाले कवि बने हैं
क्यों हरी घास को चरने वाले कवि बने हैं
परमानन्द और नवल सरीखे हिन्दी के लोचे
क्यों देश-विदेश में हिन्दी रचना की छवि बने हैं

क्यों शुक्ला, जोशी, लंठ सरीखे नागर, राठी
हिन्दी कविता पर बैठे हैं चढ़ा कर काठी
पूछ रहे अपने ई-पत्र में सुशील कुमार जी
कब बदलेगी हिन्दी कविता की यह परिपाटी



15. होली का वह दिन

होली का दिन था
भंग पी ली थी हम ने उस शाम
घूम रहे थे, झूम रहे थे
माल रोड पर बीच-सड़क हम सरेआम

नशे में थी तू परेशान कुछ
गुस्से में मुझ पर दहाड़ रही थी
बरबाद किया है जीवन तेरा मैं ने
कहकर मुझे लताड़ रही थी

मैं सकते में था
किसी चूहे-सा डरा हुआ था
ऊपर से सहज लगता था पर
भीतर गले-गले तक भरा हुआ था

तू पास थी मेरे उस पल-छिन
बहुत साथ तेरा मुझे भाता था
औ' उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
यह विचार भी मन में आता था

(रचनाकाल : 2006)

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

आगामी 9 मई को द्वितीय विश्वयुद्ध को ख़त्म हुए 65 वर्ष हो जाएंगे

रूस में 'गिओर्गी रिबन अभियान' शुरू हो गया है। आपके मन में सवाल उठा होगा-- क्या है यह 'गिओर्गी रिबन अभियान'। जैसाकि आप जानते हैं, 1941 से 1945 तक द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था। और इस दूसरे विश्वयुद्ध की शुरूआत रूस पर (जो तब सोवियत संघ कहलाता था) जर्मनी के तानाशाह शासक हिटलर की फ़ासीवादी सेनाओं के हमले से हुई थी। हिटलर ने यह सपना देखा था कि वह सारी दुनिया को जीत लेगा और बीसवीं शताब्दी में पूरे विश्व का सम्राट बन जाएगा। पहले हिटलर ने जर्मनी के आसपास के देशों पर कब्ज़ा किया और उसके बाद रूस पर हमला बोल दिया। रूसी सेना और रूस की जनता ने बड़ी बहादुरी से हिटलर की फ़ासिस्ट जर्मन सेना का सामना किया और 9 मई 1945 के दिन हिटलर के विश्व-विजय के सपने को चूर-चूर कर दिया। तब से 9 मई के दिन रूस और पूरी दुनिया में लोग द्वितीय विश्वयुद्ध में विजय की स्मृति में विजय-दिवस मनाते हैं।

रूस में दूसरे विश्वयुद्ध को 'महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध' कहकर पुकारा जाता है। विजय-दिवस के अवसर पर रूस में विजय के प्रतीक के रूप में युवा क्लब और छात्र-संगठन 'गिओर्गी रिबन' को जनता के बीच बाँटते हैं और 9 मई का दिन आने से दस-पन्द्रह दिन पहले से ही लोग पिन से यह रिबन अपनी छाती पर टाँक कर घूमने लगते है। नारंगी और काले रंग की रिबन की इस पट्टी को अपनी छाती पर लगाने का मतलब है-- "हम भी फ़ासिज़्म के विरोधी हैं और फ़ासीवाद या नाज़ियों से लड़ने वाले वीर सैनिकों को नमन करते हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध में शहीद हो गए करोड़ों लोगों को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।

नारंगी और काले रंग की पट्टियों वाला यह रिबन 'गिओर्गी रिबन' इसलिए कहलाता है क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वीर सैनिकों को जो 'गिओर्गी पदक' दिया जाता था, वह इसी तरह के रिबन में लटका होता था। रूस में 'गिओर्गी' विजय के देवता का नाम है-- वह देवता जो युद्ध में जीत दिलाता है। भारत के 'परमवीर चक्र' की तरह यह 'गिओर्गी पदक' भी द्वितीय विश्वयुद्ध में असीम शौर्य का प्रदर्शन करने वाले वीर सैनिकों को उनकी बहादुरी के लिए दिया जाता था।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

यह कविता मेरी प्रारम्भिक तीन-चार कविताओं में से है और मेरी अत्यन्त प्रिय कविताओं में से एक है। हालाँकि इसका प्रकाशन सिर्फ़ दो ही बार हुआ है।
शायद 1977 में इसे लिखा था मैंने। कविता का शीर्षक है-- ’तुम्हारा रक्तकमल’
-----------------------------------------

तुम्हारा रक्तकमल
============

देखो !
तुम सभी देखो
उस औरत को देखो

मुझे
मालूम है सब-कुछ
उस औरत के विषय में
जिसे उन्होंने रक्तकमल पर खड़ा किया है
तुम्हारा रक्तकमल

उस
औरत के
हाथों से टपकते
चंद चांदी के सिक्के ज़मीन पर

ख़ुश मत हो !
तुम्हारे रक्त से निर्मित
वे सिक्के तुम्हारे नहीं हैं
उनके हैं
जिनके पास रक्तकमल है
तुम्हारा रक्तकमल

वे फेंकते हैं सिक्के तुम्हें
सेकते हैं भट्ठी पर
भूनते हैं माँस-- बोटी टूंगते हैं
शेष बचे रक्त से रक्तकमल उगाते हैं
औरत लाते हैं और
फिर सिक्के गिराते हैं

समझो तुम
फँस मत जाना, सावधान रहना
सिक्के मत उठाना
नहीं तो वे फिर
तुम्हारा रक्त मांगेंगे
नया रक्तकमल उगाने के लिए।

अब
एक काम करो तुम
चाकू बन जाओ
तेज़ी से जाओ-- वार करो
जड़ सहित रक्तकमल काट लाओ
तुम्हारा रक्तकमल।

शनिवार, 20 मार्च 2010

अपने इस ब्लॉग का आरम्भ मैं अपनी माँ की स्मृति से कर रहा हूँ जिन्हें मैंने पिछले 40 वर्षों से नहीं देखा, लेकिन जिन्हें मैं रोज़ अपने मन में झाँक कर देखता हूँ। मेरी माँ ने मुझे यह सिखाया था कि कभी चोरी नहीं करना और कभी किसी का शोषण भी नहीं करना। मेरी माँ ने मुझसे कहा था -- कभी अपने निजी लाभ के लिए किसी दूसरे का नुकसान नहीं करना। मेरी माँ ने 1969 में मरने से पहले जो भी मुझसे कहा था, आज तक मैं उसका अक्षरश: पालन करता आया हूँ। यह कविता 1980 में मैंने अपनी माँ विजय जैन के लिए लिखी थी।

माँ
तुम कभी नहीं हारीं
कहीं नहीं हारीं
जीतती रहीं
अंत तक निरन्तर

कच-कच कर
टूटकर बिखरते हुए
बार-बार
गिरकर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर

तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफ़ेद आग बन
लहकती रही
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मी दिनों के सामने

चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं

फिर एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनंत को चली गईं
खो गईं