शनिवार, 20 मार्च 2010

अपने इस ब्लॉग का आरम्भ मैं अपनी माँ की स्मृति से कर रहा हूँ जिन्हें मैंने पिछले 40 वर्षों से नहीं देखा, लेकिन जिन्हें मैं रोज़ अपने मन में झाँक कर देखता हूँ। मेरी माँ ने मुझे यह सिखाया था कि कभी चोरी नहीं करना और कभी किसी का शोषण भी नहीं करना। मेरी माँ ने मुझसे कहा था -- कभी अपने निजी लाभ के लिए किसी दूसरे का नुकसान नहीं करना। मेरी माँ ने 1969 में मरने से पहले जो भी मुझसे कहा था, आज तक मैं उसका अक्षरश: पालन करता आया हूँ। यह कविता 1980 में मैंने अपनी माँ विजय जैन के लिए लिखी थी।

माँ
तुम कभी नहीं हारीं
कहीं नहीं हारीं
जीतती रहीं
अंत तक निरन्तर

कच-कच कर
टूटकर बिखरते हुए
बार-बार
गिरकर उठते हुए
घमासान युद्ध तुम लड़ती रहीं
द्वंद्व के अनन्त मोरचों पर

तुम कभी नहीं डरीं
दहकती रहीं
अनबुझ सफ़ेद आग बन
लहकती रही
तुम्हारे भीतर जीने की ललक
चुनौती बनी रहीं
तुम जुल्मी दिनों के सामने

चक्की की तरह
घूमते रहे दिन-रात
पिसती रहीं तुम
कराही नहीं, तड़पी नहीं
करती रहीं चुपचाप संतापित संघर्ष
जब तक तुम रहीं

फिर एक दिन तुम
आसमान में उड़ीं
उड़ती रहीं, बढ़ती रहीं
अनंत को चली गईं
खो गईं